न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्य-
च्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥8॥
न–नहीं; हि-निश्चय ही; प्रपश्यामि मैं देखता हूँ; मम–मेरा; अपनुद्यात्-दूर कर सके; यत्-जो; शोकम्-शोक; उच्छोषणम्-सुखाने वाला; इन्द्रियाणाम्-इन्द्रियों को; अवाप्य-प्राप्त करके; भूमौ–पृथ्वी पर; असपत्नम्-शत्रुविहीन; ऋद्धम्-समृद्ध; राज्यम्-राज्य; सुराणाम् स्वर्ग के देवताओं जैसा; अपि-चाहे; च-भी; आधिपत्यम्-प्रभुत्व।
BG 2.8: मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं सूझता जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके। यदि मैं धन सम्पदा से भरपूर इस पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य प्राप्त कर लेता हूँ या देवताओं जैसा प्रभुत्व प्राप्त कर लेता हूँ तब भी मैं इस शोक को दूर करने में समर्थ नहीं हो पाऊँगा।
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जब हम किसी विपत्ति मे फंस जाते हैं तब हमारी बुद्धि उस विपत्ति के कारणों का विश्लेषण करने लगती है। जब आगे कोई उपाय नहीं सूझता और ओर रास्ते बंद हो जाते है तब विषाद उत्पन्न होता है। क्योंकि अर्जुन की यह समस्या उसकी बुद्धि की क्षमता से परे है और उसका लौकिक ज्ञान उसे दुःख के महासागर में से निकालने के लिए अपर्याप्त है।
श्रीकृष्ण को गुरु के रूप में स्वीकार कर अर्जुन अब अपनी दयनीय दशा प्रकट करने के लिए अपना हृदय उनके सम्मुख उड़ेल देता है। अर्जुन की इस दशा को उत्तम नहीं कहा जा सकता। कभी-कभी हमें भी अपनी जीवन यात्रा में ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। जब हम सुख की कामना करते हैं तब हमें दुःख मिलता है। हम ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं किन्तु हम अज्ञान के अंधकार को दूर करने में समर्थ नहीं हो पाते। हम सच्चा प्रेम पाने के लिए तरसते हैं किन्तु हमें बार-बार निराशा मिलती है।
हमारे कॉलेज की डिग्रियाँ, अर्जित ज्ञान और छात्रवृत्तियाँ हमारे जीवन की इन कठिनताओं का समाधान नहीं कर सकतीं। हमें जीवन की उलझनों का समाधान करने के लिए दिव्य ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। दिव्य ज्ञान हमें तभी मिलता है जब हम वास्तविक गुरु को खोज लेते हैं जो सदैव इन्द्रियातीत रहता है। अतः हमें विनम्रतापूर्वक उससे ज्ञान प्राप्त करने के लिए उद्यत रहना चाहिए। अर्जुन इसी मार्ग का अनुसरण करने का निर्णय करता है।